विश्व जनसंख्या दिवस विशेष
भारत और चीन: जनसंख्या नियंत्रण की विपरीत सोच
भारत और चीन जनसंख्या नियंत्रण को लेकर आरंभ से ही विपरीत दृष्टिकोण अपनाते आए हैं। जहाँ साम्यवादी चीन ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए सख़्त और कठोर कानूनी उपायों को अपनाया, वहीं भारत ने इस विषय में एक उदार और लोकतांत्रिक नीति को प्राथमिकता दी।
चीन की जनसंख्या नीति की जड़ें माल्थस द्वारा प्रस्तुत जनसंख्या संबंधी भय में खोजी जा सकती हैं। माल्थस ने कहा था कि यदि मानव ने आत्म-संयम नहीं अपनाया और देर से विवाह जैसी प्रवृत्तियाँ नहीं बढ़ीं, तो प्रकृति स्वयं ही जनसंख्या नियंत्रण करेगी—बाढ़, अकाल, भुखमरी और महामारियों के माध्यम से।
हम जानते हैं कि 1950 के बाद जितने भी वैश्विक अकाल पड़े, उनमें चीन का अकाल सबसे भयावह था। अनुमान है कि उस अकाल में 2 करोड़ से अधिक लोग मारे गए।
दूसरी ओर, स्वतंत्र भारत में वैसा कोई भी अकाल नहीं पड़ा जैसा अंग्रेज़ी शासन काल में पड़ा था। न ही "आनंदमठ" में दर्शाए गए भयावह अकाल, और न ही 1943 के बंगाल अकाल जैसे त्रासदीपूर्ण दृश्य स्वतंत्र भारत ने देखे। आज़ादी के बाद कुछ अकाल ज़रूर आए, लेकिन वे युद्ध, प्राकृतिक आपदा या आपूर्ति की विफलताओं के कारण थे।
भारत में स्वतंत्रता के बाद जनसंख्या नियंत्रण को लेकर जो सोच विकसित हुई, उसमें फ्रांसीसी तर्कशास्त्री और बुद्धिवादी कोंडोर्से (Condorcet) के विचारों का प्रभाव स्पष्ट है। उन्होंने कहा था कि जनसंख्या नियंत्रण गोली-बंदूक या सख्त कानूनों से नहीं, बल्कि शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से किया जाना चाहिए। जैसे-जैसे समाज शिक्षित और जागरूक होगा, और सरकार जनसंख्या नियंत्रण के साधनों का प्रचार-प्रसार और उनकी उपलब्धता सुनिश्चित करेगी, वैसे-वैसे जनसंख्या स्वतः नियंत्रित होती जाएगी।
इंदिरा गांधी के शासनकाल में आपातकाल के दौरान जब ज़बरदस्ती नसबंदी जैसे कठोर कदम उठाए गए, तो उसका व्यापक विरोध हुआ और जनसंख्या नियंत्रण के प्रति लोगों में अविश्वास पैदा हो गया।
चीन ने जहां माल्थस के भय, 1950 के दशक के अकाल और सांस्कृतिक क्रांति की पृष्ठभूमि में सख़्त जनसंख्या नीति (जैसे एक-बच्चा नीति) अपनाई, वहीं भारत ने कंडोम, कॉपर-टी, स्वैच्छिक नसबंदी और जन-जागरूकता जैसे उपायों को अपनाया। इसका परिणाम यह हुआ कि 1967 और उसके बाद देश में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति उत्पन्न हो गई।
लेकिन 1990 के बाद भारत में प्रजातांत्रिक तरीकों से जनसंख्या नियंत्रण के सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे। एक ओर चीन तेजी से बूढ़ा हो रहा था, तो दूसरी ओर भारत युवा बनता जा रहा था। 1991 की जनगणना में जनसंख्या वृद्धि दर में कमी देखी गई, जो 2001 और 2011 की जनगणनाओं में भी जारी रही। साथ ही, NRR, TFR, GRR जैसे जैव-सांख्यिकीय सूचकांक भी सुधार की दिशा में बढ़ने लगे। यह कहा जाने लगा कि 2017 तक भारत के लगभग सभी राज्य प्रतिस्थापन जनसंख्या (Replacement Level Fertility) के स्तर को प्राप्त कर लेंगे। प्रतिस्थापन जनसंख्या का अर्थ है: "हम दो, हमारे दो"।
लेकिन हाल के वर्षों में, विशेषकर मोदी सरकार के आने के बाद, भारत में भी चीन जैसे कठोर जनसंख्या नियंत्रण कानूनों की चर्चा ज़ोर पकड़ने लगी है।
वहीं चीन अब एक नया संकट झेल रहा है—बूढ़ी होती आबादी। विनिर्माण उद्योग को आगे ले जाने के लिए उसके पास अब पर्याप्त युवा जनशक्ति नहीं बची है। भारत, इंडोनेशिया, ब्राज़ील और बांग्लादेश जैसे देश उसे कड़ी टक्कर देने लगे हैं। कोविड के दौरान संभवतः चीन में बड़ी संख्या में वृद्धों की मृत्यु भी हुई, और अब स्थिति यह है कि चीन की जनसंख्या वृद्धि दर नकारात्मक हो चुकी है। इस बदलाव को देखते हुए चीन अब उसी मार्ग पर लौट रहा है, जिस पर भारत शुरू से चल रहा था—शिक्षा और स्वैच्छिक जनसंख्या नियंत्रण का मार्ग।
विडंबना यह है कि अब भारत चीन की पुरानी कठोर नीति की ओर बढ़ने की बात कर रहा है।
इस संदर्भ में पुनः कोंडोर्से के विचारों को याद करना ज़रूरी है। उन्होंने कहा था कि जैसे-जैसे समाज में तर्कशीलता, समझदारी और विवेक का विकास होगा, वैसे-वैसे मानवीय जननशीलता भी मर्यादित होती जाएगी।
अतः निष्कर्ष यही है कि जनसंख्या नियंत्रण का उद्देश्य तभी सफल होगा जब समाज में सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता का विकास हो। सरकार का दायित्व है कि वह बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ और गर्भनिरोधक साधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करे—ना कि फरमान जारी करे या सख़्ती से नियंत्रण की कोशिश करे।
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