शांति पर्व और सुशासन: मूल्य आधारित कर नीति की आधुनिक प्रासंगिकता : प्रीति वैश्य*
शांति पर्व और सुशासन: मूल्य आधारित कर नीति की आधुनिक प्रासंगिकता
उपशीर्षक:
महाभारत के शांति पर्व में भीष्म द्वारा प्रतिपादित नैतिक एवं कर संबंधी सिद्धांत आज के भारत के प्रशासनिक तंत्र को कैसे दिशा दिखा सकते हैं?
परिचय:
भारत के प्राचीन ग्रंथों में महाभारत केवल एक ऐतिहासिक आख्यान नहीं, बल्कि एक गहन सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक मार्गदर्शिका भी है। विशेषतः शांति पर्व, जिसमें युद्धोत्तर शांति की स्थापना के लिए नीति, धर्म और प्रशासन की उच्च शिक्षाएँ निहित हैं, आज के समय में भी अत्यंत प्रासंगिक प्रतीत होता है। जब युधिष्ठिर को राज्य संचालन का भार सौंपा जाता है, तब भीष्म पितामह उन्हें न केवल एक राजा की नैतिक भूमिका बताते हैं, बल्कि कर नीति जैसी जटिल विषयों पर भी गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। इस ब्लॉग में हम विश्लेषण करेंगे कि शांति पर्व में प्रस्तुत मूल्य-आधारित कर नीति केवल प्राचीन दर्शन तक सीमित न रहकर, आज के भारत में सुशासन, पारदर्शिता और सामाजिक न्याय की नींव कैसे बन सकती है।
2. शांति पर्व की पृष्ठभूमि
महाभारत का शांति पर्व उस समय आरंभ होता है जब कुरुक्षेत्र के विनाशकारी युद्ध के बाद युधिष्ठिर राजा बन चुके होते हैं, लेकिन उन्हें यह विजय किसी भी प्रकार की प्रसन्नता नहीं देती। भ्रातृवियोग, कुल-नाश और रक्तपात की पीड़ा उनके मन में गहराई तक समाई होती है। ऐसे में वे राज्य संचालन को लेकर असमंजस और ग्लानि से ग्रस्त होते हैं। इस मानसिक स्थिति में वे भीष्म पितामह के पास जाते हैं, जो मृत्युशय्या पर शरशैय्या में लेटे हुए हैं, परंतु नीति, धर्म और राजधर्म के अजस्र स्रोत हैं।
शांति पर्व महाभारत का सबसे बड़ा खंड है, जिसमें लगभग 12,000 श्लोकों के माध्यम से राजधर्म, आपद्धर्म, मूल्य, धार्मिक और सामाजिक कर्तव्यों, शासन व्यवस्था और कर नीति जैसे विषयों पर विस्तार से चर्चा की गई है। यह पर्व दर्शाता है कि एक राजा केवल सत्ता का धारक नहीं, बल्कि समाज के नैतिक उत्थान का मार्गदर्शक होता है।
भीष्म पितामह युधिष्ठिर को यह शिक्षा देते हैं कि राज्य का उद्देश्य केवल कानून और दंड नहीं, बल्कि लोकहित, धर्म और न्याय की स्थापना होना चाहिए। वे बताते हैं कि प्रजा और राजा का संबंध केवल अधिकार और उत्तरदायित्व का नहीं, बल्कि एक नैतिक अनुबंध का होता है—जिसमें राजा प्रजा के कल्याण के लिए ही शासन करता है।
इस अध्याय की विशेषता यह है कि इसमें “मूल्य” और “कर” को न केवल शासन के दो स्तंभ माना गया है, बल्कि इन्हें एक-दूसरे का पूरक भी बताया गया है। यदि कर संग्रह धर्म और नैतिकता से किया जाए, तो वह समाज को समृद्धि और स्थिरता की ओर ले जाता है; अन्यथा वही कर अन्याय और विद्रोह का कारण बन सकता है।
3. मूल्य की अवधारणा: शासन का नैतिक आधार
शांति पर्व में "मूल्य" या धार्मिक-नैतिक सिद्धांतों को किसी वैयक्तिक आचरण तक सीमित नहीं रखा गया, बल्कि उन्हें राज्य के संचालन और समाज के संतुलन का मूलाधार माना गया है। भीष्म पितामह यह स्पष्ट करते हैं कि केवल दंड या विधि से राज्य नहीं चलता, राजा के भीतर स्थित धर्म और नैतिकता ही शासन को टिकाऊ, न्यायपूर्ण और प्रजा के अनुकूल बनाते हैं।
(क) धर्म का स्वरूप: नीति, नैतिकता और मानवता
शांति पर्व में धर्म को मूल तत्व मानते हुए कहा गया है:
"धर्मो रक्षति रक्षितः" (अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।)
शांति पर्व के अनुसार, धर्म ही राज्य का मूल आधार है ।यहाँ "धर्म" का तात्पर्य केवल धार्मिक कर्मकांड या रूढ़ियों से नहीं है, बल्कि न्याय, करुणा, सत्य, कर्तव्यपरायणता, और लोकहित के सम्मिलित भाव से है। भीष्म स्पष्ट करते हैं कि धर्म ही वह तत्व है जो व्यक्ति को राजा और राजा को लोकपाल बनाता है। यदि राजा धर्म से विमुख हो जाए, तो पूरा समाज अधर्म की ओर अग्रसर हो जाता है। धर्म के पालन से ही समाज में संतुलन, समृद्धि और शांति संभव है।
(ख) राजा के लिए आवश्यक नैतिक गुण
भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं कि राजा के गुण ही उसकी प्रजा में परिलक्षित होते हैं। इसलिए राजा को अपने आचरण में निम्नलिखित नैतिक मूल्यों का पालन अनिवार्य रूप से करना चाहिए:
सत्यनिष्ठा: निर्णय एवं व्यवहार में सत्य आधारित नीति अपनाना।
क्षमाशीलता: क्रोध में दंड न देना, अपितु क्षमा में महानता दिखाना।
न्यायप्रियता: जाति, वर्ग, धर्म या स्थिति के भेद के बिना समान न्याय।
लोभ रहित शासन: निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर लोककल्याण को प्राथमिकता देना।
शांति पर्व के श्लोक में कहा गया है:
"न साहसं न निःस्नेहं न च धर्मातिकल्पयेत्।
राजा लोकहितं नित्यं यतमानोऽभिरक्षति॥"
(राजा को न तो साहसिक अन्याय करना चाहिए, न ही प्रजा के प्रति उदासीन रहना चाहिए। उसे सदा लोकहित में कार्य करना चाहिए।)
भीष्म पितामह कहते हैं – “राजा का चरित्र ही प्रजा का चरित्र होता है।
(ग) मूल्य आधारित शासन के लाभ:
भीष्म के अनुसार, मूल्य आधारित शासन से निम्नलिखित लाभ होते हैं:
प्रजा में राजा के प्रति श्रद्धा और विश्वास उत्पन्न होता है।
समाज में व्याप्त अन्याय, भ्रष्टाचार और असंतुलन समाप्त होता है।
नैतिक मूल्यों से युक्त शासन दीर्घकालीन स्थिरता प्रदान करता है।
राज्य की दीर्घकालिक स्थिरता और समृद्धि संभव होती है।
(घ) आधुनिक उदाहरण
डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम: उनके सादगीपूर्ण जीवन, निस्वार्थ सेवा और नैतिक नेतृत्व को देश आज भी याद करता है।
सुप्रीम कोर्ट: समय-समय पर अनेक निर्णय ऐसे आए हैं जो केवल विधि आधारित नहीं, बल्कि नैतिक दृष्टिकोण से भी प्रेरित थे—जैसे पर्यावरण संरक्षण, LGBTQ+ अधिकार, या चुनावी पारदर्शिता से जुड़े मामले।
निष्कर्षतः, शांति पर्व हमें सिखाता है कि मूल्य आधारित शासन व्यवस्था न केवल आध्यात्मिक आदर्श है, बल्कि एक व्यावहारिक, टिकाऊ और जनहितकारी मॉडल भी है। बिना नैतिकता के सत्ता केवल भय या लाभ का साधन बन जाती है, लेकिन मूल्य आधारित सत्ता सेवा, न्याय और सम्मान का प्रतीक होती है।
4. कर नीति: लोककल्याण के लिए धर्मसंगत साधन
शांति पर्व में "कर" (tax) को केवल आर्थिक संसाधन के रूप में नहीं देखा गया, बल्कि एक नैतिक अनुबंध, लोकसेवा का माध्यम और राजा की धर्मपरायणता की कसौटी माना गया है। भीष्म स्पष्ट करते हैं कि राजस्व संग्रह का उद्देश्य केवल राज्य के वैभव को बढ़ाना नहीं, बल्कि लोककल्याण, न्याय और व्यवस्था बनाए रखना है।
(क) कर वसूली की नीति
भीष्म कहते हैं कि राजा को कर वसूली में संयम और न्याय का पालन करना चाहिए। कर संग्रह का आदर्श स्वरूप शांति पर्व में इस प्रकार दिया गया है:
"राजा मधुमक्षिका इव करं संहरन् प्रजाः न हिंस्यात्।"
(राजा को मधुमक्खी की तरह कर एकत्र करना चाहिए—जैसे वह फूल से मधु लेती है, परंतु उसे क्षति नहीं पहुँचाती।)
इसका अर्थ है कि:-
कर समर्थ्यानुसार लिया जाए।
अत्यधिक कर (over-taxation) से प्रजा पर बोझ न डाला जाए।
न्यायसंगत और विवेकपूर्ण संग्रह प्रणाली हो।
(ख) कर और नैतिकता का संबंध
शांति पर्व में कर को धर्म से जोड़ते हुए कहा गया है कि:
कर का उपयोग निजी विलासिता, दमन या राजशाही की चकाचौंध के लिए नहीं होना चाहिए। यह प्रजा की समृद्धि, सुरक्षा, शिक्षा, और स्वास्थ्य जैसे जनहित कार्यों में निवेश होना चाहिए। भीष्म पितामह अनेक दृष्टांतों द्वारा बताते हैं कि कैसे प्राचीन राजा कर को नीति, धर्म और न्याय के अनुरूप व्यवस्थित करते थे। यदि राजा कर वसूली में लोभवश अत्याचार करे, तो प्रजा में असंतोष और विद्रोह उत्पन्न हो सकता है।
भीष्म कहते हैं:
"राजा करं समादाय नात्मन्यय प्रयोजयेत्।
धर्मार्थं लोकसंग्राहं नित्यं दत्तं प्रयोजयेत्॥"
(राजा को कर संग्रह करने के बाद उसका उपयोग केवल धर्म, लोककल्याण और न्याय के लिए करना चाहिए।)
(ग) आदर्श कर नीति के उदाहरण:
प्राचीन उदाहरण
अशोक महान: कर नीति में सहनशीलता और लोकहित को प्राथमिकता दी।
चाणक्य (कौटिल्य): ‘अर्थशास्त्र’ में कर नीति के लिए स्पष्ट सिद्धांत दिए—कर संग्रह में संतुलन, पारदर्शिता और प्रजा के प्रति उत्तरदायित्व।
आज के भारत में आधुनिक उदाहरण :-
PM किसान योजना, आयुष्मान भारत, स्वच्छ भारत, और जनधन योजना जैसी नीतियाँ जनकल्याणकारी कर नीति का आधुनिक रूप हैं—जहाँ करदाताओं के पैसे को सीधे समाज के कमजोर वर्गों के उत्थान में प्रयोग किया गया।
GST (Goods and Services Tax) प्रणाली कर व्यवस्था को पारदर्शी और एकीकृत बनाने की दिशा में प्रयास है, जो कर न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है।
इस खंड का निष्कर्ष यही है कि शांति पर्व की कर नीति आज के भारत में उस समय और अधिक प्रासंगिक हो जाती है जब कर चोरी, भ्रष्टाचार और असमान वितरण की समस्याएँ चुनौती बन रही हैं। धर्म आधारित कर नीति का आशय है—कर नीति में लोकहित, पारदर्शिता और न्याय सुनिश्चित हो।
5. मूल्य और कर का परस्पर संबंध: नीति, धर्म और लोकहित की त्रिवेणी
महाभारत के शांति पर्व में मूल्य (धार्मिक-नैतिक सिद्धांत) और कर (राजस्व नीति) को अलग-अलग नहीं, बल्कि परस्पर पूरक और अविभाज्य तत्व के रूप में देखा गया है। भीष्म पितामह इस बात पर विशेष बल देते हैं कि कर नीति तभी न्यायोचित मानी जा सकती है, जब उसका आधार नैतिक मूल्यों पर टिका हो।.
(क) धर्म और कर का संतुलन
भीष्म स्पष्ट करते हैं कि:
कर ताकत का नहीं, धर्म का उपकरण होना चाहिए।
यदि मूल्य नष्ट हो जाएं, तो कर अत्याचार बन जाता है।
यदि कर नीति लोभी या अनुचित हो, तो वह प्रजा के असंतोष और शासन के पतन का कारण बन सकती है।
"धर्मयुक्तं यथा राज्यम्, तथैव करः धर्मयुक्तः स्यात्।"
(जैसे राज्य धर्मयुक्त होना चाहिए, वैसे ही कर प्रणाली भी।)
(ख) शासन में मूल्य और कर का संतुलित समन्वय क्यों आवश्यक है?
नैतिक शासन प्रजा में विश्वास और सहभागिता बढ़ाता है, जिससे कर अनुपालन (tax compliance) स्वाभाविक रूप से होता है।
जब प्रजा देखती है कि उसका कर पारदर्शी ढंग से जनहित में प्रयोग हो रहा है, तो वह स्वेच्छा से उसमें सहयोग करती है।
राजा (या सरकार) जब धर्म और नीति से विचलित होता है, तो कर का संग्रह शोषण का रूप ले लेता है।
(ग) आज के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता
आधुनिक भारत में जब टैक्स चोरी, भ्रष्टाचार, और काले धन जैसे मुद्दे बढ़ते हैं, तो यह संकेत हैं कि प्रशासन और नीति में नैतिक मूल्यों की कमी है।
संविधान का अनुच्छेद 265 कहता है:
"No tax shall be levied or collected except by authority of law."
यह शांति पर्व की कर नीति की ही संवैधानिक पुष्टि है, जिसमें धर्म के स्थान पर अब विधिक नैतिकता आ गई है।
लोकपाल, RTI, डिजिटल इंडिया, और आधार-आधारित पारदर्शी वितरण प्रणाली—ये सभी आधुनिक उपाय धार्मिक मूल्यों के समतुल्य नैतिक शासन के उदाहरण हैं।
(घ) वैश्विक परिप्रेक्ष्य से भी साम्यता
नॉर्डिक देश (जैसे: स्वीडन, नॉर्वे)—जहाँ कर दरें ऊँची हैं लेकिन प्रजा उसमें सहयोग करती है क्योंकि उन्हें सरकारी पारदर्शिता और सेवाओं पर पूर्ण विश्वास है।
गांधीजी का ट्रस्टीशिप सिद्धांत भी शांति पर्व से प्रेरित है—जिसमें कहा गया कि संपत्ति और कर दोनों का उद्देश्य समाज की सेवा होना चाहिए।
निष्कर्षतः
शांति पर्व में मूल्य और कर की अवधारणाएँ केवल प्राचीन विचार नहीं, बल्कि आधुनिक लोकतांत्रिक शासन का नैतिक आधार हैं। जब तक शासन धर्म, नीति और लोकहित से संचालित नहीं होगा, तब तक कर प्रणाली न तो प्रजा को न्याय दे पाएगी और न ही राष्ट्र को स्थायित्व।
एक मूल्य आधारित कर नीति ही "सच्चे सुशासन" की पहचान होती है।
6. भीष्म की शिक्षाएँ और आज का भारत
महाभारत के शांति पर्व में निहित मूल्य और कर की अवधारणाएँ केवल उस युग की राजनीतिक, धार्मिक या नैतिक व्यवस्था तक सीमित नहीं थीं, बल्कि वे सर्वकालिक और सार्वभौमिक सिद्धांत हैं। भीष्म पितामह द्वारा प्रतिपादित विचार आज के लोकतांत्रिक, संवैधानिक और आर्थिक रूप से जटिल भारत में भी उतने ही प्रासंगिक हैं।
(क) भीष्म की दृष्टि—एक आदर्श राज्य की परिकल्पना
भीष्म के अनुसार:
राजा (या आज का शासन प्रमुख) का आचरण ही राष्ट्र की दिशा तय करता है।
नैतिकता, न्याय और कर का संतुलन ही स्थायित्वपूर्ण राज्य की नींव है।
कर को यदि लोकहित का साधन माना जाए, और मूल्यों को शासन की आत्मा—तो राष्ट्र विकास और संतुलन के पथ पर चलता है।
(ख) आधुनिक भारत में इसकी प्रासंगिकता
आज जब भारत डिजिटल युग में ई-गवर्नेंस और ट्रांसपेरेंसी की ओर बढ़ रहा है, आर्थिक सुधारों के दौर में टैक्स रिफॉर्म (जैसे GST) और लोककल्याण योजनाएँ (PM Kisan, आयुष्मान भारत आदि)/प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसी योजनाएँ लागू कर रहा है, लोकतंत्र में नैतिक जवाबदेही और पारदर्शिता की माँग बढ़ रही है, तब भीष्म की ये शिक्षाएँ एक नैतिक पथदर्शक के रूप में सामने आती हैं। भ्रष्टाचार, काले धन, और टैक्स चोरी जैसी समस्याओं का समाधान तभी संभव है जब शासन प्रणाली नैतिक और पारदर्शी हो।
भारत के संविधान में अनुच्छेद 265 कहता है:
"No tax shall be levied or collected except by authority of law."
यह शांति पर्व की धर्मयुक्त कर नीति की ही पुष्टि करता है।
(ग) सुशासन का मूल मंत्र
शांति पर्व हमें बताता है कि सुशासन की आत्मा केवल तकनीकी कुशलता या प्रशासनिक सुधार नहीं है, बल्कि वह है:
धर्म (नैतिकता)
न्याय (विधान के प्रति निष्ठा)
लोककल्याण (वास्तविक जनसेवा)
(घ) 21वीं सदी का भारत: शांति पर्व की पुनःपाठ की आवश्यकता
भारत जब विकास, वैश्वीकरण और सामाजिक विषमता के बीच संतुलन खोज रहा है, तो शांति पर्व के मूल्य और कर सिद्धांत हमें एक "नैतिक विकास मॉडल" की प्रेरणा देते हैं—जहाँ न केवल GDP बढ़े, बल्कि सामाजिक विश्वास, पारदर्शिता और समरसता भी विकसित हो।
समाप्ति वाक्य:
शांति पर्व केवल एक ग्रंथ का अंश नहीं, बल्कि यह भारतीय राजनीति, प्रशासन और नीति विज्ञान के लिए "सतत प्रकाशमान नीति-दर्शन" है।
भीष्म की यह शिक्षा आज भी उतनी ही सजीव है:
"राज्य धर्म से चलता है, कर लोकहित से, और शासन मूल्य से—तीनों का समन्वय ही सच्चे सुशासन की कुंजी है।"
7. निष्कर्ष: नीति युक्त कर व्यवस्था ही सुशासन की कुंजी
महाभारत के शांति पर्व में वर्णित मूल्य और कर की अवधारणाएँ आज के भारत के लिए भी उतनी ही आवश्यक हैं जितनी प्राचीन भारत के लिए थीं। भीष्म पितामह की शिक्षाएँ बताती हैं कि राज्य केवल शक्ति या संपत्ति से नहीं चलता, बल्कि नीति, धर्म और नैतिकता के बल पर चलता है। कर संग्रह और नैतिक मूल्यों का संतुलित समन्वय एक आदर्श राज्य की नींव रखता है।
नीति, धर्म और न्याय आधारित शासन ही किसी भी देश की स्थिरता और प्रगति की कुंजी होता है। आज जब भारत 21वीं सदी में डिजिटल, वैश्विक और लोकहितकारी राष्ट्र बनने की ओर बढ़ रहा है, तब भीष्म द्वारा प्रतिपादित मूल्य और कर सिद्धांत सद्भाव, न्याय और समृद्धि के मार्गदर्शक बन सकते हैं।
आज के लोकतांत्रिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण से भी यदि हम शांति पर्व की इन शिक्षाओं को अपनाएं, तो एक न्यायसंगत, नैतिक और समृद्ध समाज का निर्माण संभव है।
* लेखक प्रधानमंत्री उत्कृष्ट महाविद्यालय, शासकीय तुलसी महाविद्यालय अनूपपुर मध्यप्रदेश के अर्थशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक है.
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