"सुमंगलम विकास: परंपरा, प्रासंगिकता और भविष्य की दिशा" : प्रीति वैश्य*

"सुमंगलम विकास: परंपरा, प्रासंगिकता और भविष्य की दिशा" 

भूमिका

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में जब विकास का अर्थ केवल औद्योगिक प्रगति, तकनीकी उन्नति और आर्थिक वृद्धि तक सीमित कर दिया गया है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम विकास की उस अवधारणा की ओर लौटें, जो केवल भौतिक संसाधनों की वृद्धि न होकर मानवता, प्रकृति और संस्कृति के समन्वय का प्रतीक हो। “सुमंगलम विकास” की धारणा इसी व्यापक और समग्र सोच का परिचायक है। यह एक ऐसी विचारधारा है जो मनुष्य मात्र के कल्याण को केंद्र में रखती है और सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक आयामों के साथ-साथ पर्यावरणीय संतुलन को भी विकास के आवश्यक घटकों में सम्मिलित करती है।

आज के समय में जब मानव जीवन में भौतिक प्रगति को ही विकास का प्रतीक माना जाता है, तब यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि क्या मात्र आर्थिक उन्नति ही सच्चा विकास है? इस संदर्भ में 'सुमंगलम विकास' की अवधारणा अत्यंत प्रासंगिक और उपयोगी बन जाती है।

सुमंगलं विकास की अवधारणा का प्रारंभ : भारतीय दृष्टिकोण

सुमंगलं विकास कोई नवीन अवधारणा नहीं, बल्कि भारत की प्राचीन परंपरा से उपजा वह दृष्टिकोण है, जो मानव मात्र के सतत और सर्वांगीण कल्याण की आकांक्षा रखता है।

सुमंगलं विकास की अवधारणा का आरंभ भारतीय संस्कृति और दर्शन की उस सनातन परंपरा से जुड़ा है, जिसमें विकास का तात्पर्य केवल भौतिक उन्नति नहीं, बल्कि व्यक्ति, समाज, प्रकृति और ब्रह्मांड के मध्य संतुलन व समरसता की स्थापना से है। यह विचार वैदिक काल से लेकर आधुनिक भारत के चिंतन तक सतत प्रवाहित होता रहा है।

मुख्य बिंदु जहाँ से इसका प्रारंभ माना जा सकता है:

1. वैदिक काल (1500 ई.पू. से पूर्व) – ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः’ जैसे मंत्र मिलते हैं, जो समस्त मानवता के सुख, स्वास्थ्य और मंगल की कामना करते हैं। यह भावना "सुमंगल" की मूल आत्मा है। प्रकृति, देवता, मानव और समाज – सभी के बीच सामंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व को ही 'समृद्धि' और 'कल्याण' माना गया।विकास का उद्देश्य केवल राजसत्ता या अर्थवृद्धि नहीं, बल्कि सबका कल्याण रहा

2. उपनिषद व दर्शन काल (800-200 ई.पू.) – जहाँ आत्मिक उन्नति, लोककल्याण और संतुलित जीवन को आदर्श माना गया।ब्रह्म और आत्मा की एकता, कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्ति मार्ग के माध्यम से अंतर्मुखी विकास को प्राथमिकता दी गई। ‘आत्मनं विद्धि’ और ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’ जैसे विचार दर्शाते हैं कि आत्मिक विकास और ब्रह्मांडीय संतुलन ही वास्तविक मंगल है।

3. जैन और बौद्ध परंपराएँ – महावीर और बुद्ध ने सच्चे मंगल को करुणा, अहिंसा, अपरिग्रह, मध्यम मार्ग और आत्म-नियंत्रण में देखा। उनके विचारों में विकास का मतलब दूसरों के अधिकारों का सम्मान करते हुए स्वयं का नैतिक और सामाजिक उत्थान है।करुणा, अहिंसा और अपरिग्रह जैसे सिद्धांत, सीमित संसाधनों में जीवन यापन एवं पर्यावरण के साथ संतुलन ये सभी सुमंगलम विकास के आधार स्तंभ हैं।

4. मध्यकालीन संत परंपरा

कबीर, रैदास, नानक, मीरा आदि संतों ने आध्यात्मिक और सामाजिक समरसता पर बल दिया। उन्होंने जाति-पाति, भेदभाव से ऊपर उठकर समरस समाज की परिकल्पना की जो सुमंगलं विकास के आदर्श को आगे बढ़ाती है।

5. आधुनिक पुनरुत्थान काल (19वीं – 20वीं सदी) – महात्मा गांधी, दयानंद सरस्वती, विनोबा भावे, अरविंद घोष आदि ने इसी पारंपरिक सोच को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया।

महात्मा गांधी ने ‘सर्वोदय’ (सभी का उदय) का विचार दिया जो कि सुमंगल विकास की आधुनिक अभिव्यक्ति है।

विनोबा भावे ने ‘भूमि दान’ और ‘ग्राम स्वराज’ के माध्यम से संतुलित और नैतिक विकास को बढ़ावा दिया।

अरविंद घोष ने आध्यात्मिक विकास के साथ राष्ट्र के उत्थान को जोड़ा।

सुमंगलम विकास की अवधारणा

1. शब्दार्थ और व्युत्पत्ति

‘सुमंगलम’ संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है – शुभ, मंगलकारी, या कल्याणकारी। यह शब्द केवल बाह्य रूप से अच्छे होने की बात नहीं करता, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समुचित, नैतिक और स्थायी विकास का संकेत देता है। “विकास” का अर्थ यदि हम प्रगति, उन्नति या विस्तार से लेते हैं, तो “सुमंगलम विकास” का अर्थ होता है – ऐसा विकास जो समग्र हो, सभी के लिए कल्याणकारी हो, और दीर्घकालिक संतुलन बनाए रखे।

2. परंपरागत बनाम सुमंगलम विकास

आधुनिक विकास की अवधारणा मुख्यतः पश्चिमी भौतिकवादी सोच पर आधारित है, जहाँ उत्पादन, उपभोग और लाभ को ही प्राथमिकता दी जाती है। इसके परिणामस्वरूप:

  • पर्यावरणीय संकट उत्पन्न हुए

  • सामाजिक विषमता बढ़ी

  • संस्कृति और परंपराओं का क्षरण हुआ

  • मनुष्य मानसिक और आध्यात्मिक रूप से कमजोर हुआ

इसके विपरीत, सुमंगलम विकास की अवधारणा भारतीय दृष्टिकोण से जन्मी है, जिसमें विकास केवल आर्थिक नहीं बल्कि धार्मिक, नैतिक, सामाजिक और आत्मिक रूप से भी संतुलित होता है। यह भारतीय संस्कृति की “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की भावना को मूर्त रूप देती है।

मुख्य बिंदु:

  • यह केवल जीडीपी वृद्धि या औद्योगिक विस्तार तक सीमित नहीं है।

  • इसमें व्यक्ति, समाज और प्रकृति – तीनों के सामंजस्य की बात की जाती है।

  • इसमें आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों का समावेश होता है।

सुमंगलम विकास की विशेषताएँ

1. समग्रता (Holistic Approach)

सुमंगलम विकास केवल एक क्षेत्र या वर्ग के विकास की बात नहीं करता। यह समस्त समाज के प्रत्येक व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक, सांस्कृतिक और आत्मिक विकास को समान रूप से महत्व देता है। यह दृष्टिकोण एकांगी नहीं, बहुआयामी है।

2. नैतिकता और आध्यात्मिकता का समावेश (Ethics and Spirituality Inclusion)

यह विकास केवल ‘क्या कर सकते हैं’ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भी पूछता है कि ‘क्या करना उचित है’। इसमें मानवीय गुणों – जैसे दया, करुणा, सत्य, अहिंसा और सेवा – को केंद्र में रखा जाता है। आध्यात्मिकता यहाँ जीवन की आंतरिक गुणवत्ता को बढ़ाने का माध्यम बनती है।

3. पर्यावरणीय संतुलन (Environmental balance)

सुमंगलम विकास प्रकृति को दोहन की वस्तु नहीं मानता, बल्कि सहअस्तित्व का भागीदार मानता है। इसमें प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग, जैव विविधता का संरक्षण, और भावी पीढ़ियों के लिए स्थिर पर्यावरण सुनिश्चित करने की बात होती है।

4. सामाजिक समरसता और न्याय (Social harmony and justice)

यह विकास ऐसा समाज चाहता है जिसमें न कोई वंचित हो और न ही कोई अत्यधिक शोषणकारी। जाति, वर्ग, लिंग, धर्म, क्षेत्र आदि के आधार पर भेदभाव नहीं हो। सभी को बराबरी का अधिकार और अवसर मिले।

5. सांस्कृतिक संरक्षण (Cultural protection)

सुमंगलम विकास परंपरा और आधुनिकता के बीच सामंजस्य बनाकर चलता है। यह न केवल वैज्ञानिक प्रगति को अपनाता है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक पहचान, लोक परंपराएँ और भाषाओं को भी संरक्षित रखने का प्रयास करता है।

वर्तमान संदर्भ में सुमंगलम विकास की प्रासंगिकता

1. पर्यावरणीय संकट

आज विश्व ग्लोबल वॉर्मिंग, जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, जल संकट, वायु प्रदूषण जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। इन सभी का मूल कारण वह विकास है जो मात्र उत्पादन और उपभोग पर आधारित है। सुमंगलम विकास का सिद्धांत प्रकृति के साथ सामंजस्य की बात करता है – यह समस्याओं की जड़ को छूता है।

2. सामाजिक विषमता और असमानता

आज विश्व में 1% अमीरों के पास 99% संपत्ति है। यह असमानता उस आर्थिक मॉडल की देन है जो केवल लाभ पर केंद्रित है। सुमंगलम विकास सामाजिक न्याय और समावेशी विकास को प्राथमिकता देता है।

3. मानसिक स्वास्थ्य संकट

भौतिक रूप से संपन्न होने के बावजूद आज     आंतरिक संतुलन की कमी के कारण मनुष्य अवसाद, तनाव और असंतोष का शिकार है।  सुमंगलम विकास मनुष्य के आध्यात्मिक स्वास्थ्य को भी महत्व देता है।

4. सांस्कृतिक संकट

आधुनिक वैश्वीकरण के दौर में अनेक भाषाएँ, परंपराएँ, और लोक कलाएँ लुप्त हो रही हैं। सुमंगलम विकास इनकी रक्षा करता है और संस्कृति के संरक्षण को विकास का अंग मानता है।

इसे कुछ उदाहरणों के माध्यम से समझा जा सकता है..।

1. महात्मा गांधी का ग्राम स्वराज

गांधीजी के अनुसार, भारत का विकास तब तक संभव नहीं जब तक गाँवों का विकास नहीं होगा। उनका ग्राम स्वराज मॉडल सुमंगलम विकास का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसकी विशेषताएं थीं...।

  • आत्मनिर्भरता

  • नैतिक जीवन

  • शांति और सहअस्तित्व

  • पर्यावरणीय सामंजस्य

यह केवल एक आर्थिक मॉडल नहीं था, बल्कि जीवन दर्शन था।

2. चिपको आंदोलन

1970 के दशक में उत्तराखंड की महिलाओं ने वनों की रक्षा के लिए पेड़ों से चिपककर उनका कटाव रोका। यह आंदोलन सुमंगलम विकास का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि यह विकास के नाम पर प्रकृति के दोहन का विरोध था ।साथ ही स्त्रियों की भागीदारी का प्रतीक था तथा पर्यावरण और आजीविका के संतुलन की माँग करता था ।

3. केरल मॉडल

केरल राज्य में साक्षरता 95% से अधिक है, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ उच्च स्तरीय हैं, तथा महिला सशक्तिकरण उच्च स्तर पर होने के कारण यह राज्य सामाजिक सूचकांक में अग्रणी है ।

हालाँकि राज्य की प्रति व्यक्ति आय अपेक्षाकृत कम है, फिर भी मानव विकास सूचकांक में केरल अग्रणी है – जो सामाजिक न्याय और समग्र कल्याण का परिचायक है।

4. स्वदेशी विज्ञान और तकनीक

भारतीय पारंपरिक ज्ञान – जैसे आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र, प्राकृतिक खेती – न केवल टिकाऊ हैं, बल्कि लोकजीवन के साथ सामंजस्य बनाए रखते हैं। सुमंगलम विकास इन परंपराओं को पुनर्जीवित करने की बात करता है।

वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था में सुमंगलम विकास के प्रयास

वर्तमान समय में भारतीय अर्थव्यवस्था में सरकारी और निजी दोनों स्तरों पर सुमंगलम विकास की अवधारणा को क्रियान्वित करने के लिए ठोस प्रयास हो रहे हैं। ये प्रयास सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय तीनों स्तरों पर संतुलन स्थापित कर भारत को एक समृद्ध और टिकाऊ भविष्य की ओर ले जाने की दिशा में कारगर सिद्ध हो रहे हैं। 

1. सरकारी प्रयास:

सरकार द्वारा सुमंगलम (समग्र, सतत व संतुलित) विकास को बढ़ावा देने हेतु विभिन्न नीतियाँ, योजनाएँ और कार्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं:

(क) पर्यावरणीय संरक्षण हेतु प्रयास:

  • राष्ट्रीय हरित ऊर्जा मिशन (National Green Energy Mission): सौर, पवन एवं अन्य नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना।

  • स्वच्छ भारत मिशन: स्वच्छता, स्वच्छ जल और बेहतर स्वच्छता सेवाएं प्रदान कर लोगों के जीवन स्तर को सुधारना।

  • राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGA): औद्योगिक प्रदूषण पर नियंत्रण और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा।

(ख) सामाजिक समावेशन हेतु प्रयास:

  • जन धन योजना: आर्थिक समावेशन को सुनिश्चित कर प्रत्येक नागरिक को बैंकिंग सुविधा से जोड़ना।

  • उज्ज्वला योजना: महिलाओं को धुएँ से मुक्ति देकर उनके स्वास्थ्य की रक्षा करना।

  • स्किल इंडिया मिशन: युवाओं को कौशल प्रशिक्षण प्रदान कर आत्मनिर्भर बनाना।

(ग) आर्थिक सुधार और आत्मनिर्भर भारत अभियान:

  • मेक इन इंडिया: घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देना और विदेशी निवेश आकर्षित करना।

  • स्टार्टअप इंडिया: नवाचार और उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करना।

  • पीएलआई (Production Linked Incentive) योजना: मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में विकास और रोजगार सृजन को प्रोत्साहित करना।

2. निजी क्षेत्र के प्रयास:

(क) कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (CSR):

कंपनियाँ अपने मुनाफे का एक हिस्सा शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण संरक्षण और महिला सशक्तिकरण जैसे क्षेत्रों में निवेश कर रही हैं।

उदाहरण: टाटा समूह द्वारा ग्रामीण विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य में योगदान।

रिलायंस फाउंडेशन द्वारा डिजिटल शिक्षा और ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में कार्य।

(ख) हरित उत्पादन और तकनीक का प्रयोग:

उद्योगों द्वारा कार्बन उत्सर्जन कम करने, रीसाइक्लिंग और सस्टेनेबल सप्लाई चेन अपनाने का चलन बढ़ा है।

उदाहरण: पेट्रोलियम कंपनियों द्वारा इथेनॉल ब्लेंडिंग, इलेक्ट्रिक व्हीकल उत्पादन में निवेश।

(ग) सामाजिक नवाचार:

प्राइवेट स्टार्टअप्स द्वारा EdTech, AgriTech, और HealthTech क्षेत्रों में नवाचार कर ग्रामीण एवं पिछड़े इलाकों तक तकनीक पहुँचाना।

उदाहरण: Byju’s, DeHaat, Practo आदि।

आलोचनात्मक दृष्टिकोण

 चुनौतियाँ

  • बाजार-प्रधान अर्थव्यवस्था में सुमंगलम विकास की अवधारणा को लागू करना कठिन है।

  • उपभोक्तावादी संस्कृति इस सोच के विरुद्ध कार्य करती है।

  • आधुनिक शिक्षा और नीति में इस अवधारणा का समावेश नगण्य है।

 संभावनाएँ

  • नीतिगत योजनाओं में सुमंगलम दृष्टिकोण को शामिल किया जा सकता है।

  • नई पीढ़ी को मूल्य-आधारित शिक्षा दी जा सकती है।

  • स्थानीय संसाधनों और संस्कृति को सशक्त बनाकर सुमंगलम विकास को प्रोत्साहन दिया जा सकता है।

निष्कर्ष

वर्तमान समय में, जब विश्व गंभीर संकटों से जूझ रहा है – जैसे पर्यावरणीय विनाश, सामाजिक असमानता, नैतिक पतन और सांस्कृतिक क्षरण – तब हमें विकास की उस संकल्पना की ओर लौटने की आवश्यकता है, जो केवल समृद्धि नहीं, संतुलन और सह-अस्तित्व की बात करती है। सुमंगलम विकास एक ऐसा ही मार्गदर्शन है – जो हमें संपूर्ण मानवता के कल्याण की दिशा में ले जाता है।

यह विकास का एक ऐसा मॉडल है जिसमें:

  • व्यक्ति और समाज का आत्मिक उत्थान हो

  • प्रकृति और संस्कृति को समान रूप से महत्व मिले

  • विज्ञान और परंपरा का समन्वय हो

  • न्याय, शांति और संतुलन हो

इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सुमंगलम विकास ही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है, और यदि हम इसे अपनाएँ, तो भविष्य न केवल समृद्ध, बल्कि सुखद, शांतिपूर्ण और स्थायी होगा ।

---

* लेखक प्रधानमंत्री उत्कृष्ट महाविद्यालय, शासकीय तुलसी महाविद्यालय अनूपपुर (म.प्र.) में अर्थशास्त्र की सहायक प्राध्यापक हैं।

Comments

Popular posts from this blog

केंद्रीय बजट 2025-26 पर एक दिवसीय राष्ट्र स्तरीय ऑनलाइन परिचर्चा का होगा आयोजन-प्रोफेसर अनिल कुमार सक्सेना

दिनांक 25 जनवरी तक विभाग में फील्ड प्रोजेक्ट करने हेतु विद्यार्थी कर सकेंगे निर्धारित प्रारूप में आवेदन, बिना आवेदन प्रोजेक्ट कार्य की नहीं दी जाएगी अनुमति-अर्थशास्त्र विभाग

Positive Vs Normative Economics_Khushi Gupta