वयं रक्षामह — उपन्यासों की दुनिया में पहला विद्रोह

वयं रक्षामह — उपन्यासों की दुनिया में पहला विद्रोह


द्वारा डॉ. अमित भूषण द्विवेदी

मेरे पिताजी कोलकाता में कार्यरत थे। वह वर्ष में दो बार—गर्मी और जाड़े की छुट्टियों में—घर आया करते थे। उनके आने की प्रतीक्षा पूरे घर को रहती थी, लेकिन मेरी प्रतीक्षा कुछ अलग थी। वह जब भी आते, साथ में किताबों का एक बंडल ज़रूर लाते—उपन्यास, इतिहास, समाज और जीवन के विविध पक्षों को छूते हुए। शायद उनके लिए ये किताबें कोलकाता की एकांत evenings की संगिनी होती हों, पर मेरे लिए वे एक बंद संसार का चुपचाप खुलता दरवाज़ा थीं।

मैं उस समय मुश्किल से आठवीं कक्षा में रहा होऊँगा, लेकिन मेरा मन उपन्यासों की उन दुनियाओं में भटकने को मचलता रहता था। पापा उन किताबों को आलमारी में रखते, सोचते कि अभी मेरे लिए ये ‘जल्दी’ है। मगर जैसे ही वे घर के कामों में व्यस्त होते, मैं चोरी-चुपके किसी एक किताब को निकाल लाता और उसे हड़बड़ी में पढ़ डालता, जैसे शब्दों को निगल रहा होऊँ। इन्हीं छुप-छुपाकर पढ़ने की आदत में मेरे हाथ लगे आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास।

"गोली", "सोमनाथ", "वैशाली की नगरबधू" और "वयं रक्षामह"—ये चार उपन्यास जैसे मेरी किशोरावस्था की चुपचाप क्रांति बन गए।गोली: इतिहास के गलियारों में स्त्री की खामोशी

‘गोली’ ने मुझे झकझोर दिया था। यह केवल एक महिला की कथा नहीं थी, बल्कि उस व्यवस्था का लेखा-जोखा थी जिसमें स्त्री, शक्ति और सत्ता के बीच एक मौन सौंप दी जाती थी।
राजस्थान के राजघरानों की यह परंपरा कि विवाह के साथ रानी की सेविकाएं भी दहेज में आती थीं, और फिर उनका विवाह राजदरबार के सेवकों से कर दिया जाता था—लेकिन उन सेवकों को अपनी ही पत्नी से कोई संबंध रखने की अनुमति नहीं होती थी। वे स्त्रियाँ राजा के लिए उपलब्ध रहती थीं।
यदि उनसे संतान होती, तो पुत्र 'गोला' और पुत्री 'गोली' कहलाती।
आचार्य चतुरसेन ने गोली में जिस संवेदनशीलता से उस स्त्री की पीड़ा को उकेरा है, वह किसी भी पाठक को भीतर तक छू जाती है। नारी देह के राजनीतिक उपयोग की ऐसी गूढ़ व्याख्या शायद ही कहीं और मिले।वै

शाली की नगरबधू: सौंदर्य, सत्ता और आत्म-त्याग की कथा

आम्रपाली की कथा मुझे इतिहास की कोरी घटनाओं से कहीं अधिक आत्मीय लगी। वैशाली की नगरबधू में चतुरसेन शास्त्री ने न केवल एक स्त्री के सौंदर्य और आकर्षण को चित्रित किया है, बल्कि उसकी चेतना, उसकी विवशता और अंततः उसका आत्म-त्याग भी बड़ी आत्मीयता से दर्शाया है।
षोडश महाजनपदों की पृष्ठभूमि पर रचा गया यह उपन्यास बौद्धकालीन भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक द्वंद्वों का अद्भुत दस्तावेज़ है।सो

मनाथ: इतिहास की वीभत्सता और मानवीय जिजीविषा

‘सोमनाथ’ एक और स्तंभ था—इतिहास के पराजय और साहस का मिला-जुला दस्तावेज़। यहाँ चतुरसेन केवल एक आक्रमण की कहानी नहीं कहते, बल्कि उस मनःस्थिति को चित्रित करते हैं जहाँ धर्म, स्वाभिमान और अस्तित्व एक ही धुरी पर खड़े दिखते हैं। यह उपन्यास मुझे पहली बार यह समझाने में सक्षम रहा कि इतिहास केवल घटनाओं का सिलसिला नहीं, मनुष्यता के भीतर चल रही लड़ाइयों का आईना भी है।

यं रक्षामह: रावण का एकाकी युद्ध

लेकिन इन सबमें जिसने मेरे भीतर कुछ स्थायी बदल दिया, वह था वयं रक्षामह
इस उपन्यास में रावण नायक है।
रावण – जो गर्व से कहता है, "वयं रक्षामह" — मैं रक्षा करूँगा।
यह एक अलग ही दृष्टिकोण था, जो मुझे पहली बार यह सोचने पर विवश करता था कि “विजेता” की कथा ही “सत्य” क्यों मानी जाती है?

यहाँ रावण पृथ्वी की रक्षा करना चाहता है। वह राम को एक साधारण भिक्षु मानता है और उनकी सेना को मात्र वानर।
वह जानबूझकर अपने राक्षसों को एक-एक करके राम के सामने भेजता है, शायद इसलिए कि वह चाहता है कि अंततः जब सब नष्ट हो जाएँ, तब केवल वही बचे — जो रक्षा के अंतिम प्रयत्न में अपना सर्वस्व दे दे।
यह रावण वैराग्य का नहीं, बलिदान का प्रतीक था।
चतुरसेन के लेखन में रावण एक 'विलेन' नहीं, बल्कि एक त्रासदी में खड़ा 'वीर' था।

मेरी पढ़ाई और वह “कुसंयोग”

अगर पापा को पता चल जाता कि मैं आठवीं कक्षा में ही उनके उपन्यास चुपचाप पढ़ रहा हूँ, तो शायद मैं आज भी उस पिटाई को याद कर रहा होता!
वो चाहते थे कि मैं मैथ और साइंस में ध्यान दूँ।
पर होनी को कुछ और मंज़ूर था—एक अजीब संयोग से मेरा नाम B.Sc. में नहीं लिखा जा सका, और मुझे B.A. में दाखिला लेना पड़ा।
शायद यही मेरी नियति थी—विज्ञान से हटकर शब्दों की ओर मुड़ना।

आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो लगता है—पापा के उन उपन्यासों ने ही मेरे भीतर के पाठक को जन्म दिया।
आचार्य चतुरसेन जैसे लेखकों ने मुझे सिखाया कि साहित्य केवल कहानी नहीं, बल्कि सोचने का तरीका होता है। इतिहास केवल बीते समय की घटनाएँ नहीं, बल्कि वर्तमान के आईने होते हैं।

आपने चतुरसेन को पढ़ा है?

यदि नहीं, तो वयं रक्षामह से शुरुआत कीजिए।
क्योंकि हो सकता है, वह उपन्यास आपके भीतर भी एक नया दृष्टिकोण जगा दे—और कोई पुराना पूर्वग्रह धीरे-धीरे गलने लगे।

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