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परेटो अनुकूलतम: कल्याणकारी अर्थशास्त्र की दृष्टि से भारत में इसकी प्रासंगिकता और सीमाएँ- प्रीति वैश्य*

परेटो अनुकूलतम: कल्याणकारी अर्थशास्त्र की दृष्टि से भारत में इसकी प्रासंगिकता और सीमाएँ परिचय आधुनिक अर्थशास्त्र में जब हम 'कल्याण' की बात करते हैं, तो केवल आर्थिक वृद्धि ही नहीं, बल्कि संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण और सामाजिक न्याय पर भी ज़ोर देते हैं। इसी संदर्भ में परेटो अनुकूलतम (Pareto Optimum) की अवधारणा एक महत्वपूर्ण सिद्धांत के रूप में सामने आती है, जो दक्षता का मापदंड प्रस्तुत करती है। यह सिद्धांत इटली के महान अर्थशास्त्री विलफ्रेडो परेटो द्वारा प्रतिपादित किया गया था। इस लेख में हम इस सिद्धांत की अवधारणा, विशेषताएँ, भारत में इसकी प्रासंगिकता और सीमाओं को उदाहरणों सहित समझेंगे। 1. परेटो अनुकूलतम की अवधारणा क्या है? कल्याणवादी अर्थशास्त्र में परेटो अनुकूलतम (Pareto Optimum) की अवधारणा सामाजिक कल्याण के विश्लेषण में एक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसे Vilfredo Pareto नामक इटालियन अर्थशास्त्री ने प्रस्तुत किया था। नीचे इसका विस्तृत विवरण दिया गया है: A. परेटो अनुकूलतम की परिभाषा: परेटो अनुकूलतम (Pareto Optimum) वह स्थिति होती है जिसमें संसाधनों का ऐसा आवंटन होता है कि कि...

शांति पर्व और सुशासन: मूल्य आधारित कर नीति की आधुनिक प्रासंगिकता : प्रीति वैश्य*

शांति पर्व और सुशासन: मूल्य आधारित कर नीति की आधुनिक प्रासंगिकता उपशीर्षक: महाभारत के शांति पर्व में भीष्म द्वारा प्रतिपादित नैतिक एवं कर संबंधी सिद्धांत आज के भारत के प्रशासनिक तंत्र को कैसे दिशा दिखा सकते हैं? परिचय: भारत के प्राचीन ग्रंथों में महाभारत केवल एक ऐतिहासिक आख्यान नहीं, बल्कि एक गहन सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक मार्गदर्शिका भी है। विशेषतः शांति पर्व, जिसमें युद्धोत्तर शांति की स्थापना के लिए नीति, धर्म और प्रशासन की उच्च शिक्षाएँ निहित हैं, आज के समय में भी अत्यंत प्रासंगिक प्रतीत होता है। जब युधिष्ठिर को राज्य संचालन का भार सौंपा जाता है, तब भीष्म पितामह उन्हें न केवल एक राजा की नैतिक भूमिका बताते हैं, बल्कि कर नीति जैसी जटिल विषयों पर भी गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। इस ब्लॉग में हम विश्लेषण करेंगे कि शांति पर्व में प्रस्तुत मूल्य-आधारित कर नीति केवल प्राचीन दर्शन तक सीमित न रहकर, आज के भारत में सुशासन, पारदर्शिता और सामाजिक न्याय की नींव कैसे बन सकती है। 2. शांति पर्व की पृष्ठभूमि महाभारत का शांति पर्व उस समय आरंभ होता है जब कुरुक्षेत्र के विनाशकारी युद्ध के बाद युधिष...

"सुमंगलम विकास: परंपरा, प्रासंगिकता और भविष्य की दिशा" : प्रीति वैश्य*

"सुमंगलम विकास: परंपरा, प्रासंगिकता और भविष्य की दिशा"  भूमिका वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में जब विकास का अर्थ केवल औद्योगिक प्रगति, तकनीकी उन्नति और आर्थिक वृद्धि तक सीमित कर दिया गया है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम विकास की उस अवधारणा की ओर लौटें, जो केवल भौतिक संसाधनों की वृद्धि न होकर मानवता, प्रकृति और संस्कृति के समन्वय का प्रतीक हो। “सुमंगलम विकास” की धारणा इसी व्यापक और समग्र सोच का परिचायक है। यह एक ऐसी विचारधारा है जो मनुष्य मात्र के कल्याण को केंद्र में रखती है और सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक आयामों के साथ-साथ पर्यावरणीय संतुलन को भी विकास के आवश्यक घटकों में सम्मिलित करती है। आज के समय में जब मानव जीवन में भौतिक प्रगति को ही विकास का प्रतीक माना जाता है, तब यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि क्या मात्र आर्थिक उन्नति ही सच्चा विकास है? इस संदर्भ में 'सुमंगलम विकास' की अवधारणा अत्यंत प्रासंगिक और उपयोगी बन जाती है। सुमंगलं विकास की अवधारणा का प्रारंभ : भारतीय दृष्टिकोण सुमंगलं विकास कोई नवीन अवधारणा नहीं, बल्कि भारत की प्राचीन परंपरा से उपजा वह ...